Monday, January 7, 2019

ग़रीब सवर्णों को 10 फ़ीसदी आरक्षण: नरेंद्र मोदी की मंशा पर क्यों है शक

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से कमज़ोर सामान्य वर्ग के लिए 10 फ़ीसदी आरक्षण का फ़ैसला किया है और इसके लिए संविधान संशोधन की बात कही जा रही है.

मीडिया में आ रही ख़बरों में कहा जा रहा है कि इसके लिए मोदी सरकार संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन का इरादा रखती है. इसके लिए उसे लोकसभा और राज्यसभा में संशोधन पर मुहर लगवानी होगी.

कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने मोदी सरकार के इस फ़ैसले पर प्रतिक्रिया दी है. हालांकि अधिकतर दल इस फ़ैसले का सीधे-सीधे विरोध करने से बच रहे हैं, लेकिन तकरीबन सभी दल आम चुनावों से कुछ महीने पहले ऐसा कदम उठाने के लिए मोदी सरकार की आलोचना कर रहे हैं.

कांग्रेस ने कहा है कि वो हमेशा ग़रीबों के हित में उठाए गए कदमों का समर्थन करती है, लेकिन पार्टी ने सवाल पूछा है कि ग़रीबों को ये नौकरियां कब मिलेंगी.

कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा, "कांग्रेस हमेशा आर्थिक तौर से ग़रीबों के आरक्षण और उत्थान की समर्थक और पक्षधर रही है. दलित, आदिवासियों और पिछड़ों के संवैधानिक आरक्षण से कोई छेड़छाड़ न हो और समाज के ग़रीब लोग, वो चाहे किसी भी जाति और समुदाय के हों, उन्हें भी शिक्षा और रोजगार का मौका मिले."

सुरजेवाला ने ट्वीट किया, "वास्तविकता यह भी है कि चार साल आठ महीने बीत जाने के बाद और चुनाव में हार सामने देख केवल 100 दिन पहली ही मोदी सरकार को आर्थिक तौर पर ग़रीबों की याद आई है, ऐसा क्यों? यह अपने आप में प्रधानमंत्री और मोदी सरकार की नीयत पर प्रश्न खड़ा करता है."

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी सामान्य वर्ग के ग़रीबों को 10 फ़ीसदी आरक्षण के फ़ैसले को 'चुनावी जुमला' करार दिया.

ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसिलमीन (एआईएमआईएम) के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि आरक्षण दलितों के साथ ऐतिहासिक अन्याय को सही करने के लिए दिया गया है. ग़रीबी दूर करने के लिए कोई भी कई योजनाएं चला सकता है, लेकिन आरक्षण न्याय के लिए बना है. संविधान आर्थिक आधार पर आरक्षण की मंज़ूरी नहीं देता है.

1950 में स्वीकार किए गए भारतीय संविधान ने दुनिया के सबसे पुराने और सबसे व्यापक आरक्षण कार्यक्रम की नींव रखी.

इसमें अनुसूचित जन जातियों और अनुसूचित जातियों को शिक्षा, सरकारी नौकरियों, संसद और विधानसभाओं में न केवल आरक्षण दिया गया बल्कि समान अवसरों की गारंटी भी दी गई.

ये आरक्षण या कोटा जाति के आधार पर दिया गया था. भारत में आरक्षण के पक्ष में दिया जाने वाला तर्क बेहद साधारण था, यानी, इसे सदियों से जन्म के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव को खत्म करने के तरीक़े के तौर पर सही ठहराना.

यह उन लाखों दुर्भाग्यशाली लोगों के लिए एक छोटा सा हर्जाना भर था जिन्होंने अछूतपने के अपमान और नाइंसाफ़ी को हर रोज़ बर्दाश्त किया था.

साल 1989 में आरक्षण पर तब राजनीति तेज़ हो गई जब वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को भी आरक्षण देने का फैसला किया.

उसके बाद से ही रह रहकर कई दल आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करते रहे हैं. यहां तक कि सत्ता में रही पार्टियों ने भी ग़रीब सवर्णों के लिए आरक्षण का फ़ैसला किया या किसी आयोग का गठन किया.

1991 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला किया था. हालांकि, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों के बेंच के इस फ़ैसले में ही कहा गया कि अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी को सभी तरह के आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए. संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में सामाजिक पिछड़ेपन को पहचान दी गई है.

बाद में जाट आरक्षण खत्म करने का फैसला देते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि सिर्फ़ जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं हो सकती. राजस्थान सरकार ने 2015 में उच्च वर्ग के ग़रीबों के लिए 14 प्रतिशत और पिछड़ों में अति निर्धन के लिए पांच फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की थी, उसे भी अदालत ने निरस्त कर दिया.

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